Reading: भारत की जनता से विश्वासघात: नकली दवाइयों के जाल में फँसा देश

भारत की जनता से विश्वासघात: नकली दवाइयों के जाल में फँसा देश

RamParkash Vats
5 Min Read
(संपादकीय मंथन, चिंतन और विश्लेषण)संपादक राम प्रकाश,

( संपादकीय चिंतन मंथन एवं विश्लेषण) केंद्रऔर राज्य सरकारों की जवाबदेही पर प्रश्न)

मौत बाँटता मुनाफाखोर तंत्र

भारत में आज सबसे बड़ा खतरा किसी वायरस या महामारी से नहीं, बल्कि नकली दवाइयों के उस खतरनाक जाल से है जिसने आम जनता के स्वास्थ्य को निगलना शुरू कर दिया है। दवा खरीदने वाला रोगी इस विश्वास में रहता है कि वह इलाज के लिए जीवनदायी औषधि ले रहा है, परंतु उसे मिलता है ज़हर का प्याला। देश के लाखों लोग नकली दवाइयों की वजह से बीमारियों की चपेट में आ रहे हैं और असमय मौत के मुंह में समा रहे हैं। यह केवल अपराध नहीं, बल्कि जनता के विश्वास के साथ किया गया सबसे बड़ा धोखा है। दुर्भाग्य यह है कि यह सब सरकारों की नाक के नीचे और कभी-कभी उनकी मिलीभगत में हो रहा है। धन कमाने की हवस ने इंसानियत को पीछे छोड़ दिया है और दवा उद्योग के कुछ लालची व्यापारी लोगों की ज़िंदगी को मुनाफे की मशीन बना चुके हैं।

जब भी कोई दवा निर्माता घटिया या नकली दवाएं बनाते हुए पकड़ा जाता है, उसके खिलाफ सख्त कार्रवाई के बजाय केवल दिखावटी जुर्माने का नाटक रचा जाता है। कुछ हजार रुपये का जुर्माना भरकर वे फिर से वही गुनाह करने लौट आते हैं। न तो उनके लाइसेंस रद्द होते हैं, न ही दोषपूर्ण बैच वापस मंगाए जाते हैं। भारत में नियामक संस्थाएं जैसे कि Central Drugs Standard Control Organization (CDSCO) और राज्य दवा नियंत्रण प्राधिकरण अपनी जिम्मेदारी निभाने में बुरी तरह विफल साबित हुए हैं। इन संस्थानों में पारदर्शिता, संसाधन और इच्छाशक्ति का अभाव है। नतीजा यह है कि देशभर की मेडिकल दुकानों और अस्पतालों में घटिया दवाएं खुलेआम बिक रही हैं। एक आम भारतीय उपभोक्ता को यह भी पता नहीं चलता कि उसके हाथ में जो दवा है, वह असली है या नकली — और यही सबसे भयावह सच ह

भारत में बड़ी-बड़ी दवा कंपनियां खुद उत्पादन नहीं करतीं; वे छोटे कारखानों से ठेके पर दवाएं बनवाती हैं। ये छोटे निर्माता गुणवत्ता नियंत्रण उपकरणों और आधुनिक प्रयोगशालाओं पर खर्च करने से बचते हैं। जब तक सरकारें इन पर सख्त निगरानी नहीं रखेंगी, तब तक जनता की जान के साथ यह खिलवाड़ जारी रहेगा। केंद्र और राज्य दोनों सरकारें इस पूरे तंत्र की जिम्मेदार हैं। केंद्र सरकार के पास नीति निर्माण की शक्ति है, जबकि राज्य सरकारों के पास लागू करने की जिम्मेदारी। लेकिन दोनों ही स्तरों पर लापरवाही, भ्रष्टाचार और अकर्मण्यता का गठजोड़ इस संकट को और गहरा कर रहा है। स्वास्थ्य सेवाओं को हमेशा कम प्राथमिकता दी गई है — चाहे बजट आवंटन में हो या प्रशासनिक नियंत्रण में। देश के ग्रामीण और गरीब तबके के लोग इस लापरवाही की सबसे बड़ी कीमत चुका रहे हैं।

अब वक्त आ गया है कि भारत अपनी दवा नीति और नियामक तंत्र को मूल से बदले। केवल कानूनों का होना पर्याप्त नहीं है — उन्हें सख्ती से लागू करने की राजनीतिक इच्छाशक्ति भी चाहिए। दोषी कंपनियों पर आपराधिक मुकदमे चलाए जाएं, उनके उत्पादन केंद्र स्थायी रूप से बंद किए जाएं और दवा नियामकों की जवाबदेही तय की जाए। केंद्र और राज्य दोनों सरकारों को एक संयुक्त मिशन बनाकर नकली दवाओं के खिलाफ युद्धस्तर पर अभियान छेड़ना होगा। इसके साथ ही दवा परीक्षण प्रयोगशालाओं की संख्या बढ़ाई जाए और उपभोक्ता को यह अधिकार दिया जाए कि वह किसी भी दवा की सत्यता की जांच करा सके।

Share This Article
Leave a comment
error: Content is protected !!