हिमाचल प्रदेश, जिसे देवभूमि के रूप में जाना जाता है, आज एक गंभीर आर्थिक मोड़ पर खड़ा है। प्राकृतिक संसाधनों, पर्यटन, कृषि और जलविद्युत की अपार संभावनाओं के बावजूद प्रदेश की वित्तीय स्थिति चिंताजनक होती जा रही है। राजस्व स्रोतों की सीमितता और व्यय का बढ़ता दबाव राज्य की अर्थव्यवस्था को असंतुलित बना रहा है।
राज्य सरकार द्वारा कर्मचारियों के वेतन, पेंशन और सामाजिक कल्याण योजनाओं पर होने वाला खर्च लगातार बढ़ रहा है, जबकि आय के स्रोत सीमित हैं। केंद्र से मिलने वाली सहायता और जीएसटी हिस्सेदारी पर निर्भरता ने राज्य की आत्मनिर्भरता को कमजोर किया है। बढ़ता कर्ज और ब्याज भुगतान की बाध्यता राज्य के बजट का बड़ा हिस्सा निगल रही है। विकास योजनाएँ और नए निवेश इससे प्रभावित हो रहे हैं।
पर्यटन और जलविद्युत उत्पादन जैसे क्षेत्र, जो हिमाचल की अर्थव्यवस्था की रीढ़ माने जाते हैं, भी अब संकट में हैं। जलवायु परिवर्तन और पर्यावरणीय प्रतिबंधों के चलते नए प्रोजेक्टों की गति धीमी हुई है, जबकि पर्यटन पर मौसमीय निर्भरता और बुनियादी ढांचे की कमी ने आमदनी के अवसर घटाए हैं। कृषि क्षेत्र में लागत बढ़ने और उत्पादकता घटने से ग्रामीण अर्थव्यवस्था पर भी असर पड़ा है।
इस नाजुक दौर में प्रदेश सरकार को चाहिए कि वह राजस्व सृजन के वैकल्पिक रास्ते खोजे। सूचना प्रौद्योगिकी, कृषि आधारित उद्योग, हस्तशिल्प और स्थानीय उत्पादों को राष्ट्रीय-बाज़ार से जोड़ा जाए। साथ ही, वित्तीय अनुशासन और खर्च पर नियंत्रण को प्राथमिकता दी जाए।
हिमाचल प्रदेश के पास अभी भी अपनी स्थिति संभालने का अवसर है, बशर्ते नीति निर्माण दूरदृष्टि और आर्थिक यथार्थ के आधार पर किया जाए। यह समय है जब सरकार, उद्योग, और जनता — तीनों मिलकर “वित्तीय आत्मनिर्भरता” की दिशा में ठोस कदम उठाएँ। अन्यथा यह नाजुक दौर आने वाले वर्षों में आर्थिक संकट का रूप ले सकता है।

