Reading: पिछले कई दशकों में भाजपा या कांग्रेस किसी भी सरकार ने फिजिकल एजुकेशन अध्यापकों की तैनाती को गंभीरता से नहीं लिया। यदि कहीं नियुक्तियां हुई भी हैं तो वह उंट के मुंह में जीरे के समान हैं। ऐसे में वर्षों से प्रशिक्षित और योग्य युवाओं के लिए अब भी नियमित बैचवाइज नियुक्ति की आश अधूरी ही बनी हुई है।

पिछले कई दशकों में भाजपा या कांग्रेस किसी भी सरकार ने फिजिकल एजुकेशन अध्यापकों की तैनाती को गंभीरता से नहीं लिया। यदि कहीं नियुक्तियां हुई भी हैं तो वह उंट के मुंह में जीरे के समान हैं। ऐसे में वर्षों से प्रशिक्षित और योग्य युवाओं के लिए अब भी नियमित बैचवाइज नियुक्ति की आश अधूरी ही बनी हुई है।

RamParkash Vats
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(संपादकीय मंथन, चिंतन और विश्लेषण)संपादक राम प्रकाश,

शिक्षा केवल पुस्तकीय ज्ञान तक सीमित नहीं है, बल्कि यह व्यक्ति के शरीर, मन और आत्मा के समग्र विकास का माध्यम है। यही कारण है कि प्राचीन भारतीय शिक्षा प्रणाली में कहा गया है – “शरीरमाद्यं खलु धर्मसाधनम्”, अर्थात शरीर ही धर्म साधना का प्रथम साधन है। परंतु दुर्भाग्य से हिमाचल प्रदेश जैसे शिक्षित और सांस्कृतिक रूप से समृद्ध राज्य में शारीरिक शिक्षा को वह सम्मान और प्राथमिकता कभी नहीं मिली जिसकी यह सच्चे अर्थों में अधिकारी है। बीते पच्चीस वर्षों से फिजिकल एजुकेशन अध्यापक लगातार उपेक्षा के शिकार हैं। यह केवल एक शिक्षक वर्ग के साथ अन्याय नहीं, बल्कि शिक्षा व्यवस्था के समग्र ढांचे के साथ भी गंभीर अन्याय है।

एक स्वस्थ मस्तिष्क के लिए स्वस्थ शरीर अनिवार्य है। विद्यालयों में फिजिकल एजुकेशन अध्यापक वह कड़ी हैं जो विद्यार्थियों के मानसिक, शारीरिक और भावनात्मक विकास को संतुलित करते हैं। वे केवल खेल प्रशिक्षक नहीं, बल्कि अनुशासन, टीम भावना, सहनशीलता, नेतृत्व और आत्मविश्वास जैसे जीवन मूल्यों के शिक्षक होते हैं। शिक्षा का वास्तविक उद्देश्य एक जिम्मेदार और सक्षम नागरिक तैयार करना है, और इस दिशा में शारीरिक शिक्षक की भूमिका आधारभूत है। परंतु विडंबना यह है कि अधिकांश विद्यालयों में आज फिजिकल एजुकेशन अध्यापक ही नहीं हैं या उनकी जिम्मेदारी गैर-फिजिकल शिक्षक निभा रहे हैं। परिणामस्वरूप शिक्षा अधूरी और असंतुलित हो गई है।

हिमाचल प्रदेश में पिछले दो दशकों से शारीरिक शिक्षा अध्यापकों की नियुक्ति लगभग ठप है। हजारों की संख्या में प्रशिक्षित युवा B.P.Ed और M.P.Ed की डिग्रियां लेकर बेरोजगारी का दंश झेल रहे हैं। प्रत्येक विद्यालय में खेल और स्वास्थ्य शिक्षा के लिए एक समर्पित शिक्षक की आवश्यकता है, लेकिन सरकारें अस्थायी उपायों और आउटसोर्सिंग से काम चला रही हैं। विद्यालयों की खेल प्रतियोगिताओं में भी अधिकतर गैर-फिजिकल शिक्षक बच्चों का नेतृत्व करते हैं, जिससे विद्यार्थियों को सही दिशा और प्रशिक्षण नहीं मिल पाता। भाजपा और कांग्रेस — दोनों ही सरकारों ने इस वर्ग की उपेक्षा की है। शिक्षा विभाग के बजट में खेल प्रोत्साहन के नाम पर लाखों-करोड़ों रुपये खर्च होते हैं, लेकिन मैदान पर खेल अध्यापक की अनुपस्थिति इस खर्च को बेमानी बना देती है।

इस उपेक्षा के परिणाम आज हमारे सामने हैं। कभी विद्यालयों के मैदानों में बच्चों की किलकारियाँ और खेल का जोश गूंजता था, आज वहां सन्नाटा पसरा है। विद्यार्थी मैदान से अधिक मोबाइल स्क्रीन में व्यस्त हैं। यह परिवर्तन केवल सामाजिक नहीं, बल्कि नीतिगत भूलों का नतीजा है। शारीरिक शिक्षा अध्यापक की कमी ने विद्यार्थियों के स्वास्थ्य को भी प्रभावित किया है। मोटापा, तनाव, अवसाद और नशे जैसी समस्याएं स्कूली बच्चों में बढ़ रही हैं। जिन खिलाड़ियों में राज्य और देश का नाम रोशन करने की क्षमता थी, वे प्रशिक्षण और अवसरों के अभाव में हतोत्साहित होकर निजी संस्थानों या दूसरे राज्यों का रुख कर रहे हैं।

शारीरिक शिक्षा अध्यापक विद्यालय के अनुशासन, संगठनात्मक गतिविधियों और सहशैक्षणिक संस्कृति के प्राण होते हैं। एनसीसी, एनएसएस, स्काउट्स और खेलकूद जैसी गतिविधियों की सफलता उन्हीं पर निर्भर होती है। जब ये पद रिक्त रहते हैं, तो विद्यालयों का सांस्कृतिक और अनुशासनिक ढांचा कमजोर होता जाता है। यही कारण है कि सरकारी विद्यालयों की प्रतिष्ठा गिर रही है। एक समय था जब छुट्टी के समय सड़कों पर सरकारी स्कूलों के बच्चों की भीड़ दिखाई देती थी, आज वही स्कूल खाली पड़े हैं।

राज्य में सरकारी विद्यालयों की यह दुर्दशा कई कारणों से हुई है — सरकारी उदासीनता, रिक्त पदों की पूर्ति न होना, शिक्षा का राजनीतिकरण और निजी विद्यालयों को परोक्ष बढ़ावा देना। यदि यही क्रम जारी रहा, तो आने वाले समय में “हिमाचल प्रदेश शिक्षा बोर्ड” के आगे “प्राइवेट लिमिटेड” जोड़ना पड़ेगा। सरकारी स्कूलों की घटती विश्वसनीयता केवल शिक्षकों की कमी नहीं, बल्कि नीति निर्माण में दृष्टिकोण की कमजोरी को भी दर्शाती है।

हिमाचल प्रदेश में शिक्षा नीति अक्सर राजनीतिक घोषणाओं तक सीमित रह जाती है। चुनावों से पहले सरकारें शिक्षकों की भर्तियों और खेल सुविधाओं के वादे करती हैं, परंतु सत्ता में आने के बाद यह विषय हाशिए पर चला जाता है। नई योजनाओं और आउटसोर्स पॉलिसी के नाम पर योग्य प्रशिक्षित युवाओं की अनदेखी की जाती है। इससे न केवल शिक्षकों में निराशा फैलती है, बल्कि शिक्षा की गुणवत्ता पर भी प्रतिकूल प्रभाव पड़ता है।

फिजिकल एजुकेशन अध्यापक विद्यालय का जीवंत प्रेरक होता है। वह विद्यार्थियों को केवल खेल सिखाने तक सीमित नहीं रहता, बल्कि उन्हें जीवन मूल्यों, आत्मसंयम, सहयोग और संघर्ष की भावना सिखाता है। खेल के माध्यम से बच्चे हार और जीत दोनों को समान भाव से स्वीकार करना सीखते हैं। विद्यालय तभी जीवंत बनता है जब वहाँ ज्ञान और खेल दोनों का संतुलन हो। शिक्षा का यह संतुलन तभी संभव है जब फिजिकल एजुकेशन अध्यापक को उसका उचित स्थान मिले।

अब समय आ गया है कि सरकार इस दिशा में ठोस कदम उठाए। सबसे पहले फिजिकल एजुकेशन अध्यापकों के रिक्त पदों की तत्काल पूर्ति की जानी चाहिए। 25 वर्षों से प्रतीक्षा कर रहे प्रशिक्षित युवाओं को प्राथमिकता दी जानी चाहिए। प्रत्येक विद्यालय में कम से कम एक शारीरिक शिक्षक की नियुक्ति अनिवार्य होनी चाहिए, जैसे विज्ञान या गणित के शिक्षक की होती है। आउटसोर्स नीति समाप्त कर स्थायी और सम्मानजनक पदस्थापन सुनिश्चित किया जाए। विद्यालयों में खेल उपकरण और सुविधाओं का मानकीकरण किया जाए ताकि अध्यापक अपनी भूमिका प्रभावी ढंग से निभा सकें।

सरकार को यह भी सुनिश्चित करना चाहिए कि खिलाड़ियों के साथ उनके प्रशिक्षकों को भी समान सम्मान मिले। नई शिक्षा नीति में शारीरिक शिक्षा को केवल अतिरिक्त गतिविधि के रूप में नहीं, बल्कि मुख्य पाठ्यक्रम के अभिन्न हिस्से के रूप में शामिल किया जाना चाहिए। समाज और अभिभावकों को भी अपनी सोच बदलनी होगी। आज भी कई लोग फिजिकल एजुकेशन को “कम महत्व का विषय” समझते हैं, जबकि यही विषय बच्चों में आत्मविश्वास, स्वास्थ्य और अनुशासन की नींव रखता है।

भविष्य की शिक्षा वही होगी जो किताबों और खेल मैदानों दोनों को साथ लेकर चले। 21वीं सदी के बच्चे को केवल अंकों की नहीं, बल्कि जीवन के हर क्षेत्र में विजय की आवश्यकता है, और यह विजय फिजिकल एजुकेशन अध्यापक ही सिखाता है। हिमाचल प्रदेश को “स्वस्थ शरीर, स्वस्थ शिक्षा” के सिद्धांत को अपनाकर शिक्षा में वास्तविक सुधार की दिशा में कदम बढ़ाने होंगे।

यदि हम शिक्षा को केवल पठन-पाठन तक सीमित रखेंगे तो समाज अधूरा रहेगा। फिजिकल एजुकेशन अध्यापक की उपेक्षा केवल एक वर्ग के साथ अन्याय नहीं, बल्कि राज्य की शैक्षिक आत्मा के साथ अन्याय है। इसलिए आवश्यक है कि शारीरिक शिक्षा अध्यापकों की नियुक्ति, सम्मान और सहभागिता को प्राथमिकता दी जाए। आउटसोर्स नीति की जगह नियमित और स्थायी भर्ती ही शिक्षा सुधार का पहला कदम होगी।

यदि यह सुधार अभी नहीं किए गए तो आने वाले वर्षों में हिमाचल की शिक्षा व्यवस्था “प्राइवेट लिमिटेड” के ठप्पे में सिमट जाएगी। लेकिन यदि सरकार, समाज और शिक्षण जगत मिलकर आगे बढ़ें, तो वह समय दूर नहीं जब हर विद्यालय के आंगन से बच्चों की हंसी, खेल की ऊर्जा और शिक्षा का उजास एक साथ झलकेगा। तब हिमाचल सचमुच “शिक्षा, स्वास्थ्य और संस्कृति का संगम” कहलाएगा।

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