(पर्यावरण, जलवायु परिवर्तन, आपदा, आजीविका और जन सहभागिता के प्रश्नों पर केंद्रित)
शिमला 06/11/2025/ स्टेट चीफ़ ब्यूरो विजय समयाल
हिमालय हमारे अस्तित्व की रीढ़ है—जल, जलवायु, जीवन और संस्कृति की शिरा-धमनियों में प्रवाहित ऊर्जा का अपरिहार्य स्रोत। परंतु आज वही हिमालय असंतुलित विकास और बदलती जलवायु के सबसे बड़े प्रहार का मूक शिकार है। औद्योगिक क्रांति के बाद पृथ्वी का तापमान 1.2°C बढ़ चुका है, लेकिन हिमालय इस तापमान वृद्धि को दोगुनी तीव्रता से महसूस कर रहा है। वैज्ञानिक चेतावनी दे रहे हैं कि हिमनदों के पिघलने की गति संसाधनों, नदियों और कृषि-आधारित समाजों के भविष्य को सीधे संकट में डाल रही है। वैश्विक जलवायु समझौते और बड़े-बड़े वादे कागजों में सीमित हैं—विकसित देश अपने ऐतिहासिक कार्बन उत्सर्जन की जिम्मेदारी से पीछे हटते जा रहे हैं, जबकि विकासशील देश तकनीकी सहयोग और न्यायपूर्ण समाधान की मांग कर रहे हैं। इस परिवेश में हिमाचल प्रदेश जैसे पर्वतीय राज्य एक निर्णायक मोड़ पर खड़े हैं: क्या हम उसी रास्ते पर चलेंगे जिसने प्रकृति को घायल किया, या हम उस दिशा में लौटेंगे जहाँ विकास का अर्थ विनाश नहीं, बल्कि संरक्षण और सामंजस्य हो?
पिछले वर्षों में हिमाचल ने असामान्य वर्षा, भूस्खलन, बादल फटना, नदी-तट कटाव और अचानक आयी बाढ़ के रूप में अभूतपूर्व तबाही झेली है। गाँव उजड़े, घर ढहे, पुल बह गए, खेती बंजर हुई और हजारों परिवार अब तक पुनर्वास की प्रतीक्षा में हैं। यह केवल प्राकृतिक घटनाएँ नहीं, बल्कि उस विकास सोच का परिणाम है जिसने नदी-घाटियों को कंक्रीट के जंगल में बदल दिया, जिसने कमजोर पर्वतीय ढलानों पर सुरंगें और चौड़ी सड़कें उकेरीं, और जिसने पर्यावरणीय आकलन को औपचारिक प्रक्रिया से ज़्यादा कुछ नहीं समझा। विडंबना यह है कि हिमाचल का लगभग 67% भूभाग वन क्षेत्र में है, इसलिए राज्य सरकार पुनर्वास के लिए पर्याप्त गैर-वन भूमि ही नहीं ढूँढ पा रही। ऐसे में समाधान मुआवज़े की घोषणाओं में नहीं, बल्कि उस वैकल्पिक विकास सोच में है जो जैव-विविधता, जल-स्रोत, पहाड़ी कृषि, स्थानीय समुदायों और पारिस्थितिकी को केंद्र में रखती है। कुल्लू, शिमला, किन्नौर और लाहौल-स्पीति में अति-पर्यटन और संसाधनों पर बढ़ता दबाव हमें चेतावनी दे रहा है कि हिमालय की वहन-क्षमता की सीमा पार होती जा रही है। अब दिशा बदलनी होगी—वाटरशेड प्रबंधन, इको-रेस्टोरेशन, जल संरक्षण, स्थानीय आजीविका और जन-भागीदारी ही आगे का रास्ता हैं।
इन्हीं सवालों से संवाद और समाधान की तलाश का प्रयास है—15–16 नवम्बर 2025 को मंडी में आयोजित दो दिवसीय हिमालय सम्मेलन। पहला दिन आपदा-प्रभावित समुदायों की जनसुनवाई को समर्पित होगा, ताकि नीतियों की शुरुआत आँकड़ों से नहीं, बल्कि उन आवाज़ों से हो जिन्हें अब तक सबसे अधिक नुकसान झेलना पड़ा है। दूसरे दिन मेगा प्रोजेक्ट्स के पर्यावरणीय जोखिम, भूमि उपयोग कानून, वन अधिकार, निवेश नीतियाँ, पर्वतीय आजीविका, जलवायु अनुकूल नीतियों और हिमालय के लिए विशेष संरक्षण नीति पर विस्तृत विमर्श होगा। यह सम्मेलन केवल विचारों का आदान-प्रदान नहीं, बल्कि नीति, विज्ञान, सामाजिक संगठनों और जनता को एक साझा मंच पर लाने का प्रयत्न है—ताकि विकास का मॉडल ऐसा बने जो हिमालय की आत्मा के अनुरूप हो: संतुलित, संवेदनशील और भविष्य को सुरक्षित करने वाला। विश्वास यही है—हिमालय तब बचेगा जब जनता स्वयं अपने जल, जंगल और जमीन की संरक्षक बनेगी, जब पहाड़ अपनी बोली में अपनी बात कहने लगेंगे, और जब विकास मनुष्य और प्रकृति—दोनों के सम्मान के साथ आगे बढ़ेगा।
आयोजक:
एकल नारी शक्ति संगठन | भूमि अधिग्रहण प्रभावित मंच | हिमालय नीति अभियान | हिमलोक जागृति मंच | हिमाचल ज्ञान-विज्ञान समिति | हिमधरा पर्यावरण समूह | जीभी वैली टूरिज्म डेवलपमेंट एसोसिएशन | लोकतंत्र | लोकतांत्रिक राष्ट्रनिर्माण अभियान | मंडी साक्षरता समिति | पीपल फॉर हिमालय अभियान | पर्वतीय महिला अधिकार मंच | सामाजिक आर्थिक समानता के लिए जन अभियान | सेव लाहौल-स्पीति:_डॉ. अशोक कुमार सोमल
लोकतांत्रिक राष्ट्रनिर्माण अभियान | Ph. 941801548

