भलूण पंचायत के खड्डा पानी स्कूल में पहली कक्षा के छात्र के साथ मारपीट, जातीय आधार पर अपमान और धमकी जैसी घटना हिमाचल की उस पहचान पर प्रश्नचिह्न है, जो खुद को “शिक्षित, शांत और सभ्य” प्रदेश कहता है। छह-सात साल का बच्चा किसी स्कूल में पढ़ने जाता है, पर शिकायत के मुताबिक शौचालय में बंद करके उसके कान से खून निकालना, पैंट में बिच्छू बूटी डालना और डराकर चुप कराना—यह केवल अमानवीय अपराध नहीं, बल्कि यह दर्शाता है कि समाज में संवेदना कमजोर हो रही है और बच्चों की सुरक्षा को हल्के में लिया जा रहा है। यह घटना बताती है कि अपराध केवल शहरों में नहीं, गाँवों के स्कूलों में भी पनप रहे हैं, जहाँ अभिभावक मानते हैं कि बच्चा सबसे सुरक्षित रहता है।
सबसे चिंताजनक पहलू वह है, जिसमें आरोप है कि स्कूल में बच्चों को जाति और समुदाय के आधार पर अलग बैठाया जाता है—नेपाली बच्चे एक तरफ, हरिजन बच्चे दूसरी ओर और राजपूत तीसरी ओर। यह व्यवस्था समाज की पुरानी बीमारियों को फिर जीवित कर रही है। संविधान का अनुच्छेद 17 छुआछूत को अपराध घोषित करता है, और अनुसूचित जाति–अनुसूचित जनजाति संरक्षण अधिनियम भेदभाव और प्रताड़ना को कठोर दंड के दायरे में लाता है। यदि किसी स्कूल में किसी बच्चे के साथ जातीय अपमान होता है, तो यह केवल नैतिक अपराध नहीं, बल्कि सीधे-सीधे कानूनी अपराध है। शिकायत दर्ज होने के बाद पुलिस ने SC/ST अत्याचार निवारण अधिनियम और अन्य धाराओं में केस बनाया है, यह बताता है कि कानून अपना काम कर रहा है; पर सवाल यह है—क्या व्यवस्था पहले से रोकथाम कर रही थी?
इस मामले में एक और गंभीर कमी सामने आई—स्कूल में तैनात कर्मचारियों की स्थितियाँ अस्पष्ट निकलीं। जिस व्यक्ति पर मारपीट के आरोप हैं, वह शिक्षक निकला ही नहीं; उसकी पत्नी मल्टी-टास्क वर्कर है, और दर्ज नामों में एक व्यक्ति रिकॉर्ड में अस्तित्व ही नहीं रखता। इसका मतलब है कि स्कूल प्रबंधन और SMC बिना सही सत्यापन के लोगों को बच्चों के बीच काम करने दे रहे हैं। किसी भी सरकारी या मान्यता प्राप्त स्कूल में बच्चों से जुड़े पदों पर नियुक्ति से पहले पुलिस वेरिफिकेशन, दस्तावेज जांच और प्रशिक्षण अनिवार्य होना चाहिए। यदि ये नियम कागज़ पर हैं पर जमीन पर नहीं, तो यह भी अपराध है और शिक्षा विभाग की जिम्मेदारी निश्चित है। सिर्फ “जांच जारी” कह देने से समस्या खत्म नहीं होती; जवाबदेही तय करनी होगी।
अंततः यह मामला केवल एक परिवार की शिकायत नहीं—यह एक चेतावनी है कि यदि समाज समय रहते नहीं जागा, तो कमजोर वर्गों के बच्चे आगे भी चुपचाप शिकार होते रहेंगे। कानून सख्त है, पर उसका उपयोग तभी कारगर है जब समाज दबाव बनाए, मीडिया आवाज उठाए और प्रशासन कार्रवाई में देरी न करे। बच्चों की सुरक्षा, जातीय समानता और स्कूलों की जवाबदेही को लेकर जागरूकता अब विकल्प नहीं, मजबूरी है। हिमाचल की पहचान तभी बनी रहेगी जब स्कूल बच्चों के लिए डर नहीं, सीख का स्थान हों। यह समय है कि अभिभावक, विभाग, पंचायतें और समाज मिलकर साफ संदेश दें—बच्चों पर हाथ उठाने वाले, जाति के नाम पर अपमान करने वाले, और अपनी वर्दी व पद का दुरुपयोग करने वाले किसी भी व्यक्ति को कानून तुरंत और कड़ी सज़ा दे।

