अंततः सवाल बहुत स्पष्ट है–क्या हम सुविधा के नाम पर धीरे-धीरे ज़हर पीने को तैयार हैं?
चाय की दुकान से लेकर शादी-ब्याह तक—हल्के, सस्ते और इस्तेमाल के बाद फेंक देने की सुविधा ने इन्हें सर्वव्यापी बना दिया।

डिस्पोज़ेबल कप–प्लेट: सुविधा की आड़ में सेहत से समझौता!”
तेज़ होती जीवनशैली और बढ़ती फास्ट–फूड संस्कृति ने डिस्पोज़ेबल कप–प्लेट को आधुनिक उपभोक्ता की पहली पसंद बना दिया है। चाय की दुकान से लेकर शादी-ब्याह तक—हल्के, सस्ते और इस्तेमाल के बाद फेंक देने की सुविधा ने इन्हें सर्वव्यापी बना दिया। लेकिन सुविधा की यही संस्कृति अब गंभीर खतरे के रूप में सामने है। वैज्ञानिक अनुसंधान और स्वास्थ्य एजेंसियाँ लगातार चेतावनी दे रही हैं कि इन प्लास्टिक और थर्माकोल आधारित बर्तनों में मौजूद रसायन धीरे-धीरे मानव शरीर में ज़हर बनकर जमा हो रहे हैं। यह मसला पर्यावरण या स्वच्छता से कहीं आगे बढ़कर अब सार्वजनिक स्वास्थ्य संकट का रूप ले चुका है।
इन डिस्पोज़ेबल बर्तनों में सबसे ज़्यादा इस्तेमाल होने वाला पदार्थ है पॉलिस्टाइनरीन, जिसे आम भाषा में थर्माकोल कहा जाता है। गर्म चाय, कॉफ़ी या भोजन के संपर्क में आते ही इसमें मौजूद Styrene भोजन में घुलना शुरू हो जाता है। WHO और IARC इसे “संभावित कैंसरकारी पदार्थ” के रूप में सूचीबद्ध कर चुके हैं। दूसरी ओर, प्लास्टिक से बनी प्लेटों में प्रयोग किए जाने वाले BPA और Phthalates हार्मोनल असंतुलन, बांझपन, मोटापा, डायबिटीज और बच्चों के मस्तिष्क विकास में बाधा डालने वाले सिद्ध हो चुके हैं। और तो और, बाज़ार में बड़ी मात्रा में उपलब्ध सस्ते और रीसायकल प्लास्टिक से बने कप–प्लेट में Lead, Cadmium जैसी भारी धातुएँ और कचरे के रासायनिक अवशेष पाए जाते हैं। हर चाय की चुस्की, हर निवाला—अक्सर अदृश्य ज़हर के साथ शरीर में प्रवेश कर रहा है।
स्वास्थ्य खतरा ही अकेली समस्या नहीं है। डिस्पोज़ेबल कचरे का अंबार देश के लिए दूसरी बड़ी चुनौती है। ये कप–प्लेट न गलते हैं, न जलते—सड़कों, नालियों, नदियों और समुद्र को प्रदूषित करते रहते हैं। भारत में हर दिन लाखों टन प्लास्टिक कचरा उत्पन्न हो रहा है, जिसे नगर निकाय और प्रदूषण नियंत्रण संस्थाएँ संभाल ही नहीं पा रहीं। विडंबना यह है कि सबसे अधिक इस सामग्री का उपयोग वहां होता है जहां निगरानी सबसे कम—सड़क किनारे छोटे दुकानदारों, फेरीवालों और ढाबों में। यहीं रीसायकल प्लास्टिक से बनी निम्न गुणवत्ता की प्लेट और कप सबसे ज़्यादा उपयोग होते हैं, जिससे विषैला प्लास्टिक अनजाने में करोड़ों लोगों के पेट तक पहुँच रहा है।
स्थिति की गंभीरता को देखते हुए कई राज्यों ने प्रतिबंध और सख़्त मानकों की दिशा में कदम बढ़ाए हैं। केंद्र सरकार, FSSAI और CPCB भी इसके लिए कड़े नियम लागू करने की प्रक्रिया में हैं। लेकिन सच्चाई यह है कि समस्या का समाधान केवल सरकारी कदमों से संभव नहीं। समाज को भी अपनी भूमिका समझनी होगी। मिट्टी के कुल्हड़, स्टील, कांच, पत्तल–दोना और बांस जैसे स्वदेशी विकल्प सुरक्षित, पर्यावरण–अनुकूल और ग्रामीण अर्थव्यवस्था के लिए लाभकारी हैं। दुकानदारों पर खाद्य सुरक्षा लाइसेंस और दंड व्यवस्था लागू हो, साथ ही उपभोक्ताओं को भी अपनी आदतें बदलनी होंगी—क्योंकि सुविधा से बड़ी प्राथमिकता स्वास्थ्य होनी चाहिए।
अंततः सवाल बहुत स्पष्ट है-क्या हम सुविधा के नाम पर धीरे-धीरे ज़हर पीने को तैयार हैं?-क्या हम सुविधा के नाम पर धीरे-धीरे ज़हर पीने को तैयार हैं? डिस्पोज़ेबल कप–प्लेट आधुनिक जीवन का प्रतीक नहीं, बल्कि आने वाली स्वास्थ्य महामारी का संकेत बन चुके हैं। अब समय है कि सरकार, समाज और उपभोक्ता मिलकर इस धीमे ज़हर पर रोक लगाएँ। अन्यथा, हर चाय की चुस्की और हर थाली का भोजन हमारी नसों में वही जहर बहाता रहेगा, जिसकी कीमत भविष्य की पीढ़ियाँ अपनी सेहत से चुकाएँगी। सुविधा और स्वास्थ्य में से किसी एक को चुनने का समय अब आ चुका है—और समझदारी केवल एक ही जवाब देती है: स्वास्थ्य पहले, सुविधा बाद में।

