जब भाषा मुरझाती है, तो उसके साथ एक पूरी सभ्यता की खुशबू भी खो जाती है। हिमाचल की बोलियों को बचाना केवल भाषा का नहीं, पहचान का प्रश्न है।
हर घाटी की अपनी भाषा, हर शब्द में एक कहानी। हिमाचल की भाषाई विरासत को सहेजना ही प्रदेश के भविष्य को संवारना है।
बोलियाँ बचेंगी तो पहचान बचेगी — हिमाचल की मातृभाषाओं का पुकारता स्वर
भाषा केवल बोलने का माध्यम नहीं, बल्कि किसी समाज की आत्मा होती है। यह उस समुदाय के जीवन-मूल्यों, संस्कारों, परंपराओं और इतिहास का जीवंत दस्तावेज़ है। भाषा के माध्यम से ही एक पीढ़ी अपने अनुभव, ज्ञान और संस्कृति को दूसरी पीढ़ी तक पहुँचाती है। जिस समाज की मातृभाषा कमजोर पड़ने लगती है, उसका अस्तित्व भी धीरे-धीरे मिटने लगता है। यही चिंता आज हिमाचल प्रदेश की अनेक मातृभाषाओं के सामने खड़ी है।
हिमाचल प्रदेश भाषाई दृष्टि से अत्यंत समृद्ध प्रदेश है। यहाँ की प्रत्येक घाटी, प्रत्येक क्षेत्र की अपनी विशिष्ट बोली और भाषाई पहचान है। मंडियाली, सिरमौरी, कुलवी, किन्नौरी, चंबयाली, भरमौरी, पहाड़ी, भटियाली, और कीन्नौरी जैसी अनेक बोलियाँ यहाँ की सांस्कृतिक पहचान हैं। ये भाषाएँ हिमाचल की विविधता और लोकसंस्कृति की सजीव प्रतीक हैं। किंतु विडंबना यह है कि आधुनिकता, शहरीकरण और वैश्वीकरण की चकाचौंध में ये बोलियाँ अपने अस्तित्व के लिए संघर्ष कर रही हैं।
बदलते सामाजिक परिवेश में अंग्रेज़ी और हिंदी का वर्चस्व बढ़ा है। माता-पिता अपने बच्चों को आधुनिक शिक्षा और रोज़गार के अवसरों के लिए मातृभाषा से अधिक महत्व अंग्रेज़ी को देने लगे हैं। घरों में जहाँ कभी लोकगीत, लोककथाएँ और पहाड़ी बोलियाँ सुनाई देती थीं, वहाँ अब मोबाइल और टेलीविज़न की भाषा ने स्थान ले लिया है। परिणामस्वरूप नई पीढ़ी अपनी मातृभाषा से दूर होती जा रही है।
भाषा का लुप्त होना केवल शब्दों का गायब होना नहीं है, बल्कि लोकसंस्कृति, परंपरा और पहचान का मिट जाना है। जब कोई भाषा मरती है, तो उसके साथ उस भाषा में निहित लोकगीत, कहावतें, मिथक, लोककथाएँ, तीज-त्योहार और जीवन दर्शन भी मिट जाते हैं। यह सांस्कृतिक क्षरण किसी भी समाज के लिए सबसे बड़ा खतरा है।
हिमाचल की इन भाषाओं का संकट यह भी है कि इनमें से अधिकांश का कोई विकसित लिपि-रूप नहीं है। अधिकतर बोलियाँ मौखिक परंपरा तक सीमित हैं। यदि इनका दस्तावेज़ीकरण और लेखन नहीं हुआ, तो आने वाले दशकों में इनका अस्तित्व केवल लोकस्मृतियों तक सीमित रह जाएगा।
इसलिए अब यह आवश्यक हो गया है कि राज्य सरकार और समाज दोनों मिलकर इन भाषाओं के संरक्षण के लिए ठोस कदम उठाएँ। सबसे पहले, शिक्षा व्यवस्था में स्थानीय भाषाओं को स्थान देना होगा। प्राथमिक शिक्षा में मातृभाषा को माध्यम बनाना बच्चों के सर्वांगीण विकास के लिए भी लाभकारी है। जब बच्चा अपनी मातृभाषा में सीखता है, तो वह न केवल विषय को बेहतर समझता है बल्कि अपनी संस्कृति से भी जुड़ता है।
पाठ्यक्रम में स्थानीय भाषाओं और लोकसाहित्य को शामिल किया जाना चाहिए। विभिन्न विश्वविद्यालयों और महाविद्यालयों में हिमाचली भाषाओं पर शोधकार्य को प्रोत्साहन मिलना चाहिए। प्रदेश के सूचना एवं जनसंपर्क विभाग को भी स्थानीय भाषाओं में रेडियो, दूरदर्शन और डिजिटल माध्यमों से प्रसारण बढ़ाना चाहिए, ताकि इन भाषाओं का प्रयोग जीवंत रहे।
इसके अतिरिक्त, स्थानीय कलाकारों, लेखकों और लोकगायकों को सम्मानित कर इन भाषाओं में सृजन की प्रेरणा देनी चाहिए। सांस्कृतिक मेले, लोककला उत्सव और नाटक जैसे माध्यम मातृभाषा के पुनर्जागरण के प्रभावी उपकरण बन सकते हैं। समाज में यह भाव जागृत करना होगा कि मातृभाषा पिछड़ेपन का नहीं, बल्कि अपनी पहचान का प्रतीक है।
महात्मा गांधी ने कहा था -“जो अपनी मातृभाषा का आदर नहीं करता, वह अपनी मातृभूमि का आदर नहीं कर सकता।” यह बात हिमाचल के संदर्भ में और भी सटीक बैठती है, क्योंकि यहाँ की भाषाएँ केवल शब्दों का समूह नहीं, बल्कि पहाड़ों की आत्मा हैं।
कवि की यह पंक्ति —
“बिनु निज भाषा ज्ञान के, मिटे न हिय को सूल।”
स्पष्ट करती है कि मातृभाषा के ज्ञान के बिना किसी समाज की वास्तविक उन्नति संभव नहीं है। अपनी भाषा से ही समाज की संवेदना, संस्कृति और चेतना जीवित रहती है।यदि हम हिमाचल की इन मातृभाषाओं को संरक्षित नहीं कर पाए, तो आने वाली पीढ़ियाँ उस विरासत से वंचित हो जाएँगी जो हमें हमारे पूर्वजों से मिली है। समय की मांग है कि हम अपनी भाषाई विविधता को कमजोरी नहीं, बल्कि अपनी शक्ति के रूप में स्वीकार करें।अतः हिमाचल की हर बोली, हर शब्द और हर लोकगीत की रक्षा हमारा नैतिक दायित्व है। जब तक हमारी मातृभाषाएँ जीवित हैं, तब तक हिमाचल की आत्मा भी जीवित है।

