नदियों का वरदान और विकास की दिशा
हिमाचल प्रदेश प्रकृति की गोद में बसा एक ऐसा राज्य है, जहाँ नदियाँ न केवल जीवन का आधार हैं बल्कि ऊर्जा का भी प्रमुख स्रोत हैं। सतलुज, ब्यास, रावी, चिनाब और यमुना जैसी नदियाँ हिमालय की गोद से निकलकर राज्य को जलविद्युत उत्पादन की अपार संभावनाएँ देती हैं। यही कारण है कि हिमाचल को देश का “हाइड्रो पावर हब” कहा जाता है। राज्य की कुल स्थापित जलविद्युत क्षमता लगभग 27,000 मेगावाट आँकी गई है, जिसमें से करीब आधी क्षमता का दोहन हो चुका है। सरकार और निजी कंपनियाँ मिलकर इस क्षमता को और आगे बढ़ाने का प्रयास कर रही हैं।
जलविद्युत परियोजनाएँ न केवल राज्य की ऊर्जा आवश्यकता पूरी करती हैं, बल्कि अतिरिक्त बिजली को बेचकर हिमाचल को राजस्व भी प्रदान करती हैं। यह राज्य की अर्थव्यवस्था के लिए जीवनरेखा के समान है। परंतु यह भी सत्य है कि केवल उत्पादन बढ़ाना ही विकास का मापदंड नहीं है; पर्यावरणीय संतुलन बनाए रखना भी उतना ही आवश्यक है। विकास और संरक्षण का यह संतुलन ही आने वाले दशकों में हिमाचल की ऊर्जा नीति की असली कसौटी बनेगा।
जलविद्युत की संभावनाएँ और नई पहलें
वर्तमान में राज्य में लगभग 11,000 मेगावाट जलविद्युत का उत्पादन हो रहा है, जिसमें 45 प्रतिशत केंद्र सरकार के उपक्रमों जैसे एनएचपीसी, एनटीपीसी और एसजेवीएन के नियंत्रण में है। वहीं, राज्य सरकार की अपनी कंपनियाँ जैसे हिमाचल प्रदेश पावर कॉर्पोरेशन लिमिटेड (एचपीपीसीएल) भी इस क्षेत्र में महत्वपूर्ण योगदान दे रही हैं।नई योजनाओं की बात करें तो छोटा भाभा, शोंगटों-कड़कू, चनाब बेसिन और सतलुज बेसिन में कई नई परियोजनाएँ पाइपलाइन में हैं। इनसे अगले पाँच वर्षों में राज्य को करीब 3,000 मेगावाट अतिरिक्त क्षमता मिलने की संभावना है।इसके अलावा सरकार अब “माइक्रो हाइड्रो प्रोजेक्ट्स” पर भी ध्यान दे रही है, जो छोटे पैमाने पर स्थानीय समुदायों के सहयोग से तैयार किए जा रहे हैं। इन परियोजनाओं से न केवल ऊर्जा उत्पादन होगा, बल्कि ग्रामीण स्तर पर रोजगार और आत्मनिर्भरता भी बढ़ेगी।सरकार का लक्ष्य है कि हिमाचल वर्ष 2030 तक “ग्रीन पावर स्टेट” बने, जहाँ कोयला या डीज़ल आधारित ऊर्जा की जगह जल, सौर और पवन ऊर्जा का मिश्रण हो
पर्यावरणीय चुनौतियाँ और जनभावनाएँ
जहाँ जलविद्युत विकास से राज्य को आर्थिक लाभ होता है, वहीं इसके पर्यावरणीय और सामाजिक दुष्प्रभावों को नज़रअंदाज़ नहीं किया जा सकता। बड़ी-बड़ी परियोजनाओं के कारण पहाड़ों में सुरंगों का निर्माण, पेड़ों की कटाई, भूमि अधिग्रहण और नदियों के प्रवाह में परिवर्तन जैसी समस्याएँ सामने आई हैं। इससे भूस्खलन, जलस्रोतों का सूखना, और जैवविविधता पर गहरा असर पड़ रहा है।
कई बार स्थानीय समुदायों की आवाज़ को पर्याप्त महत्व नहीं दिया गया, जिससे सामाजिक असंतोष भी पैदा हुआ। परियोजनाओं के लिए विस्थापित लोगों को उचित पुनर्वास और मुआवज़ा नहीं मिल पाने की शिकायतें बार-बार उठती रही हैं।
इसलिए आज ज़रूरत है “पर्यावरण-संवेदनशील ऊर्जा नीति” की, जिसमें हर परियोजना के साथ पारिस्थितिक मूल्यांकन को प्राथमिकता दी जाए। साथ ही, स्थानीय पंचायतों और पर्यावरण विशेषज्ञों की भागीदारी सुनिश्चित की जाए। अगर विकास जनता की भागीदारी और प्रकृति के संरक्षण के साथ हो, तो वही सच्चा सतत विकास कहलाएगा।
टिकाऊ ऊर्जा की राह और हिमाचल का नेतृत्व
हिमाचल प्रदेश के पास जलविद्युत के साथ-साथ सौर और पवन ऊर्जा की भी व्यापक संभावनाएँ हैं। ऊँचाई वाले क्षेत्रों में सौर विकिरण अधिक है, जबकि स्पीति और किन्नौर जैसे इलाकों में सौर ऊर्जा संयंत्रों की सफलता ने नई उम्मीदें जगाई हैं। सरकार यदि जलविद्युत को सौर ऊर्जा के साथ संयोजित कर “हाइब्रिड ऊर्जा मॉडल” अपनाती है, तो यह राज्य को आत्मनिर्भर ऊर्जा प्रणाली की दिशा में अग्रसर कर सकता है।
साथ ही, राज्य को यह भी सुनिश्चित करना होगा कि भविष्य की परियोजनाएँ केवल उत्पादन बढ़ाने के लक्ष्य तक सीमित न रहें, बल्कि जल-संरक्षण, स्थानीय आजीविका और पारिस्थितिक स्थिरता पर आधारित हों।
यदि सरकार “ग्रीन एनर्जी मिशन हिमाचल” जैसे व्यापक अभियान चलाए, तो यह न केवल बिजली उत्पादन का मॉडल बनेगा बल्कि देश के अन्य पर्वतीय राज्यों के लिए प्रेरणा स्रोत भी सिद्ध होगा।
हिमाचल को अपनी नदियों को केवल संसाधन नहीं, बल्कि विरासत के रूप में देखना होगा। जब विकास, पर्यावरण और मानवता एक साथ कदम मिलाएँगे, तभी यह पहाड़ी राज्य सचमुच “ऊर्जा की भूमि” बन पाएगा — स्वच्छ, संतुलित और टिकाऊ।जलविद्युत हिमाचल की आर्थिक रीढ़ है, परंतु यह रीढ़ तभी मजबूत रहेगी जब इसके साथ पर्यावरणीय संवेदना जुड़ी होगी। आज का हिमाचल केवल बिजली का उत्पादक नहीं, बल्कि टिकाऊ विकास का प्रतीक बनने की क्षमता रखता है। यदि नीति, प्रकृति और नीयत तीनों में संतुलन रखा गया, तो हिमाचल नदियों की शक्ति से भारत के ऊर्जा भविष्य को आलोकित करेगा।

