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शिमला,08 अक्तूबर 2025, राज्य चीफ़ ब्यूरो विजय समयाल: हिमाचल प्रदेश उच्च न्यायालय ने मोटर वाहन दुर्घटना में पूर्णत: विकलांग हुए एक युवक को न्याय दिलाते हुए उसकी मुआवजा राशि में उल्लेखनीय वृद्धि के आदेश पारित किए हैं। न्यायमूर्ति सत्येन वैद्य की पीठ ने निचली अदालत द्वारा दी गई क्षतिपूर्ति राशि ₹14,92,400 को बढ़ाकर ₹28.86 लाख कर दिया है। साथ ही यह भी निर्देश दिया गया है कि याचिकाकर्ता को यह राशि 7.5 प्रतिशत वार्षिक ब्याज सहित, याचिका दायर करने की तिथि से लेकर वास्तविक भुगतान तक प्रदान की जाए।
अदालत ने इस मामले में बीमा कंपनी द्वारा दायर अपील को असंगत और निराधार ठहराते हुए खारिज कर दिया, जबकि पीड़ित की ओर से मुआवजा बढ़ाने की याचिका को स्वीकार कर लिया गया। न्यायालय ने माना कि निचली अदालत द्वारा पीड़ित की कार्यात्मक विकलांगता को केवल 50 प्रतिशत मानना न्यायोचित नहीं था, क्योंकि उपलब्ध साक्ष्य और चिकित्सीय रिपोर्टों से स्पष्ट है कि युवक 100 प्रतिशत स्थायी विकलांगता का शिकार हुआ है।
मामले के अनुसार, यह दुर्घटना 10 मई 2015 को जिला मंडी में घटित हुई थी। याचिकाकर्ता एक शादी समारोह के लिए किराये पर ली गई गाड़ी में यात्री के रूप में सवार था। वाहन अनियंत्रित होकर लगभग 150 मीटर गहरी खाई में जा गिरा, जिससे याचिकाकर्ता गंभीर रूप से घायल हो गया। जांच के दौरान चिकित्सीय अभिलेखों से यह प्रमाणित हुआ कि युवक की रीढ़ की हड्डी में फ्रैक्चर होने से उसे पैराप्लेजिया (निचले अंगों का स्थायी पक्षाघात) हो गया है।
दुर्घटना के समय पीड़ित की आयु 28 वर्ष थी। वह मनरेगा कार्यकर्ता था तथा कृषि कार्यों में भी संलग्न रहता था। न्यायालय में दर्ज बयान में उसने कहा कि दुर्घटना के बाद उसका जीवन “जीवित नर्क” बन गया है। वह पूरी तरह बिस्तर पर है और नित्य क्रियाओं के लिए भी दो सहायकों पर निर्भर है। न्यायमूर्ति सत्येन वैद्य ने अपने आदेश में यह भी उल्लेख किया कि पीड़ित अब कोई भी आर्थिक गतिविधि करने में असमर्थ है और उसका संपूर्ण जीवन बाहरी सहायता पर निर्भर रहेगा।अदालत ने यह भी कहा कि ऐसी परिस्थितियों में मुआवजे का निर्धारण केवल आय और आयु के गणित तक सीमित नहीं रह सकता।
न्यायालय ने यह टिप्पणी की कि—> “मानवीय पीड़ा, सम्मानपूर्वक जीवन का अधिकार और स्थायी शारीरिक असमर्थता—इन सबका मूल्य धनराशि में पूरी तरह नहीं आंका जा सकता, परंतु न्याय व्यवस्था का दायित्व है कि वह यथासंभव समुचित प्रतिपूर्ति सुनिश्चित करे।”
उच्च न्यायालय ने इस आधार पर निचली अदालत के निर्णय में संशोधन करते हुए क्षतिपूर्ति की राशि लगभग दोगुनी कर दी और बीमा कंपनी को आदेश दिया कि वह यह राशि निर्धारित ब्याज सहित एक निश्चित अवधि के भीतर पीड़ित को अदा करे।इस निर्णय को न्यायिक दृष्टि से एक मानवीय संवेदना से परिपूर्ण फैसला माना जा रहा है, जो यह दर्शाता है कि न्यायालय केवल विधिक व्याख्या का मंच नहीं, बल्कि पीड़ित व्यक्ति के जीवन के पुनर्वास का संवेदनशील संरक्षक भी है।

