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संपादकीय चिंतन, मंथन और विश्लेषण —-जब आय संसाधन कम हों, तो करों का कहर बरसता है

RamParkash Vats
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संपादक राम प्रकाश वत्स Mob:-88947-23376

जनता के लिए यह समझना मुश्किल हो जाता है कि वह किसे दोष दे — केंद्र को, राज्य को या अपनी ही लोकतांत्रिक प्रणाली को।

केंद्र सरकार द्वारा दी जाने वाली अनुदान राशि या वित्तीय सहायता किसी विशिष्ट उद्देश्य से बंधी होती है

जबकि केंद्र का कहना होता है कि राज्य अपने संसाधनों का सही उपयोग नहीं कर रहा। इस आपसी खींचतान का खामियाजा जनता को भुगतना पड़ता है।

यह दुर्भाग्यपूर्ण है कि विधानसभा में जब भी जनता को राहत देने की बात आती है, तो राजनीतिक पक्ष और विपक्ष एक-दूसरे पर आरोप लगाते हुए मुद्दों को टाल देते हैं। नेताओं के निजी हित से जुड़े प्रस्ताव मिनटों में पास हो जाते हैं, तो जनता के भीतर असंतोष गहराता है।

सीमित आय और बढ़ते करों की मार—जब किसी प्रदेश की अपनी आय के साधन सीमित होते हैं, तब सरकार को राजस्व जुटाने के लिए सबसे आसान रास्ता करों में बढ़ोतरी दिखाई देता है। यही स्थिति आज हिमाचल प्रदेश जैसी पर्वतीय अर्थव्यवस्था वाले राज्यों में देखने को मिलती है। यहां प्राकृतिक संसाधन, जलविद्युत, पर्यटन और कृषि की अपार संभावनाएं होने के बावजूद, औद्योगिक आधार कमजोर और राजस्व के स्रोत सीमित हैं। परिणामस्वरूप जब केंद्र सरकार से पर्याप्त वित्तीय सहायता नहीं मिलती या देरी होती है, तो राज्य सरकार अपनी आय का बोझ जनता पर डालने के लिए विवश हो जाती है। ऐसी स्थिति में दैनिक उपभोग की वस्तुएं, खाद्य पदार्थ और परिवहन महंगे हो जाते हैं। कृत्रिम परिवहन साधनों में सफर महंगा पड़ता है, जिससे आम आदमी की जीवनशैली पर सीधा असर पड़ता है। जनता की जेब पर बढ़ते करों का यह भार प्रदेश की आर्थिकी को और मंदा बना देता है।

कर प्रणाली की सीमाएं और केंद्र का रुख—–प्रदेश सरकार की कर प्रणाली का दायरा सीमित होता है। किसी राज्य के पास पेट्रोल, डीजल, शराब, भूमि कर, बिजली शुल्क और वाहन पंजीकरण जैसे कुछ ही राजस्व स्रोत होते हैं। केंद्र सरकार द्वारा दी जाने वाली अनुदान राशि या वित्तीय सहायता किसी विशिष्ट उद्देश्य से बंधी होती है — जैसे सड़क निर्माण, स्वास्थ्य सेवा या शिक्षा सुधार। इस राशि का उपयोग राज्य अपनी इच्छा से नहीं कर सकता। जब राज्य सरकार इन निधियों को सार्वजनिक हित में खर्च करती है, तो विपक्ष आरोपों का तूफान खड़ा कर देता है। यह राजनीतिक परंपरा लगभग हर राज्य में दिखाई देती है। केंद्र से मिलने वाली सहायता दो प्रकार की होती है — एक संवैधानिक प्रावधानों के तहत निर्धारित हिस्सा, जो वित्त आयोग की सिफारिशों पर आधारित होता है, और दूसरा आकस्मिक या मानवीय सहायता, जो आपदाओं या विशेष परिस्थितियों में दी जाती है। यदि केंद्र और राज्य के बीच राजनीतिक या वैचारिक मतभेद गहरे हों, तो यह सहायता भी अक्सर देरी या शर्तों में उलझ जाती है। यही स्थिति जनता के कंधों पर करों का अतिरिक्त बोझ बनकर उतरती है।

तालमेल की कमी और जनता की पीड़ा—-केंद्र और राज्य सरकारों के बीच तालमेल का अभाव किसी भी प्रदेश की आर्थिक गति को थाम देता है। हिमाचल प्रदेश इसका सजीव उदाहरण है। यहां सरकारें बार-बार इस बात की शिकायत करती हैं कि केंद्र उनकी जरूरतों के अनुरूप सहायता नहीं देता, जबकि केंद्र का कहना होता है कि राज्य अपने संसाधनों का सही उपयोग नहीं कर रहा। इस आपसी खींचतान का खामियाजा जनता को भुगतना पड़ता है। उदाहरण के तौर पर, हिमाचल में सीमेंट के दाम अन्य राज्यों की तुलना में अधिक हैं। इसी प्रकार, केंद्र द्वारा पेट्रोल-डीजल पर राहत दिए जाने के बावजूद, प्रदेश में दाम ऊंचे बने रहते हैं। राज्य सरकार अपने बचाव में कहती है कि उसे अपने राजस्व स्रोतों को बनाए रखना है, ताकि विकास योजनाएं चल सकें। परन्तु जनता के लिए यह तर्क स्वीकार्य नहीं होता, क्योंकि महंगाई सीधे उसकी रसोई और रोजमर्रा के जीवन को प्रभावित करती है।

राज्य सरकारों को चाहिए कि वे स्वयं भी आदर्श स्थापित करें। कर वसूली के साथ-साथ उन्हें खर्चों में पारदर्शिता, प्राथमिकताओं में जनहित और भ्रष्टाचार पर अंकुश लगाना होगा। जब जनता यह देखती है कि उसके दिए कर का उपयोग ईमानदारी से जनकल्याण में हो रहा है, तब वह कर भार को सहज रूप से स्वीकार करती है। परंतु जब विधानसभा में जनता से जुड़े मुद्दे बहस और आरोप-प्रत्यारोप में फंस जाते हैं, और नेताओं के निजी हित से जुड़े प्रस्ताव मिनटों में पास हो जाते हैं, तो जनता के भीतर असंतोष गहराता है।

राजनीति बनाम जनता की राहत-–यह दुर्भाग्यपूर्ण है कि विधानसभा में जब भी जनता को राहत देने की बात आती है, तो राजनीतिक पक्ष और विपक्ष एक-दूसरे पर आरोप लगाते हुए मुद्दों को टाल देते हैं। लेकिन जब नेताओं के वेतन, भत्ते या सुविधाओं से जुड़े प्रस्ताव आते हैं, तो वे मेज थपथपाकर एकमत हो जाते हैं। यही वह विरोधाभास है जो जनता के मन में अविश्वास पैदा करता है। नेताओं को समाजसेवा का प्रतीक और जनसेवक माना जाता है, परंतु जब वही जनसेवक अपनी सुविधा को प्राथमिकता देते हैं, तो यह व्यवस्था की आत्मा को कमजोर करता है।

सरकार की चुनावी घोषणाएं भी इसी समस्या का हिस्सा बन जाती हैं। चुनाव के समय किए गए वादे जब राजस्व के अभाव में पूरे नहीं हो पाते, तो वे राज्य सरकार के गले की फांस बन जाते हैं। नतीजा यह होता है कि नई योजनाओं के लिए सरकार को नए कर लगाने या पुराने कर बढ़ाने पड़ते हैं। यह बोझ सीधे जनता की जेब पर पड़ता है। प्रदेश में बेरोजगारी, पलायन और महंगाई जैसी समस्याएं इस चक्र को और गहरा कर देती हैं। जनता के लिए यह समझना मुश्किल हो जाता है कि वह किसे दोष दे — केंद्र को, राज्य को या अपनी ही लोकतांत्रिक प्रणाली को।

मानवता और सहयोग का संतुलन जरूरी—-मुख्य प्रश्न यही है कि केंद्र सरकार को राज्यों की आर्थिक सहायता को केवल राजनीतिक दृष्टिकोण से नहीं, बल्कि मानवीय दृष्टिकोण से देखना चाहिए। जब कोई राज्य सीमित संसाधनों और भौगोलिक कठिनाइयों से जूझ रहा हो, तब उसके लिए केंद्र का सहयोग नैतिक और संवैधानिक जिम्मेदारी दोनों है। हिमाचल जैसे पर्वतीय राज्य, जिनकी अर्थव्यवस्था मौसम, परिवहन और सीमित उद्योगों पर निर्भर करती है, को स्थायी वित्तीय संरचना की जरूरत है।राज्य सरकारों को भी अपने हिस्से का आत्मनिरीक्षण करना चाहिए। कर वसूली के साथ-साथ भ्रष्टाचार नियंत्रण, गैर-जरूरी खर्चों में कटौती, स्थानीय संसाधनों का वैज्ञानिक दोहन और पारदर्शी शासन व्यवस्था को प्राथमिकता देनी चाहिए। तभी जनता में विश्वास पैदा होगा कि सरकारें वास्तव में “जनसेवा” कर रही हैं, न कि सत्ता-संतुलन के खेल में लगी हैं।

    प्रदेश और केंद्र का तालमेल केवल राजनीतिक आवश्यकता नहीं, बल्कि आर्थिक स्थिरता और सामाजिक विश्वास का आधार है। जब दोनों सरकारें सामंजस्यपूर्ण तरीके से काम करती हैं, तो जनता पर करों का बोझ स्वतः घटता है। लेकिन यदि यह तालमेल टूट जाए, तो न सिर्फ सरकारें कमजोर होती हैं, बल्कि जनता की उम्मीदें भी करों के बोझ तले दब जाती हैं।

    किसी भी प्रदेश की आर्थिक स्थिरता उसके संसाधनों से अधिक, उसके शासन तंत्र के सहयोग और संवेदनशीलता पर निर्भर करती है। कर लगाना आसान है, लेकिन जनभावनाओं को समझकर उनका बोझ कम करना ही सुशासन की सच्ची पहचान है। हिमाचल प्रदेश जैसे राज्य तभी आत्मनिर्भर बन सकते हैं जब राजनीति से ऊपर उठकर “सहयोग, समन्वय और मानवता” की भावना से शासन चलाया जाए। यही वह मार्ग है जो जनता को राहत और प्रदेश को सशक्त भविष्य की ओर ले जाएगा।

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