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अगस्त 2025 की रात लोकतांत्रिक राष्ट्रनिर्माण अभियान के पर्यावरण ग्रुप ने एक ऐतिहासिक व्याख्यान का आयोजन किया।

RamParkash Vats
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लेखिक अशोक कुमार सोमल

बाढ़, भूस्खलन और बादल फटने जैसी घटनाएं केवल प्राकृतिक आपदा नहीं हैं, बल्कि यह मनुष्य के लालच और गलत विकास मॉडल की परिणति हैं। यदि हमने पर्यावरणीय चेतना और संवेदनशीलता को समय रहते अपनाया, तभी हिमालय और वहां बसने वाली मानव सभ्यता सुरक्षित रह पाएगी। राष्ट्रनिर्माण अभियान के पर्यावरण ग्रुप ने एक

राष्ट्रनिर्माण अभियान के पर्यावरण ग्रुप ने एक ऐतिहासिक व्याख्यान का आयोजन किया।आयोजित इस व्याख्यान में देश-दुनिया के प्रख्यात पर्यावरणविद, सामाजिक, राजनीतिक व आर्थिक चिंतक डॉ. रवि चोपड़ा ने उत्तराखंड और हिमाचल प्रदेश में बाढ़ के हालातों पर गहन दृष्टिकोण प्रस्तुत किया। कार्यक्रम में प्रोफेसर आनंद कुमार, श्री दीपक ढोलकिया, श्रीमती संध्या, श्री राम सरन, श्री वीरेंद्र, श्री मंथन पूनम, कुल्लू से डॉ. कुलराज सिंह कपूर, श्री नेक राम, पद्मश्री श्री दिनेश समेत लगभग 40 बुद्धिजीवी और सामाजिक सरोकार रखने वाले महानुभावों ने सहभागिता की।

हिमालय की उत्पत्ति और उसकी नाजुकताडॉ. चोपड़ा ने अपने व्याख्यान में सबसे पहले हिमालय की भौगोलिक पृष्ठभूमि को स्पष्ट किया। उन्होंने बताया कि लगभग 10 करोड़ वर्ष पहले भारत की भूमि अफ्रीका से अलग होकर एशिया महाद्वीप से टकराई और इस टक्कर से हिमालय पर्वत का निर्माण हुआ। यह टक्कर आज भी जारी है और इसी दबाव के कारण हिमालय लगातार ऊपर उठ रहा है। हिमालय एक युवा पर्वत है, जिसमें अनेक फॉल्ट लाइनें मौजूद हैं। यही वजह है कि इसकी धरती नाजुक और अस्थिर है, थोड़ी सी हलचल पर ही दरकने या खिसकने लगती है।

उन्होंने चेताया कि पिछले डेढ़ सौ वर्षों से औद्योगिकीकरण और कार्बन उत्सर्जन के कारण धरती का तापमान तेजी से बढ़ रहा है। इसका सीधा असर ध्रुवीय क्षेत्रों और ग्लेशियरों पर पड़ा है। हिमालय क्षेत्र में बर्फ तेजी से पिघल रही है, जिससे नदियों का स्वरूप बदल रहा है और समुद्र का जल स्तर भी बढ़ रहा है।

नदियों का स्वरूप और बाढ़ का खतरा

हिमालय से निकलने वाली नदियां—गंगा, यमुना, सतलुज, रावी, झेलम, सिंधु और ब्रह्मपुत्र—पूरे भारतीय उपमहाद्वीप की जीवनरेखा हैं। इनके साथ जुड़ी बरसाती नदियां मानसून में प्रचंड रूप लेती हैं। परंतु आज इन नदियों का प्राकृतिक प्रवाह अव्यवस्थित हो गया है। आज़ादी के बाद बड़े पैमाने पर बांधों का निर्माण हुआ, जिसने न केवल जल प्रवाह को प्रभावित किया बल्कि पहाड़ों की संवेदनशीलता को भी बढ़ा दिया।

1850 के बाद अंग्रेजी शासन से शुरू हुआ वनों का कटान आज भी जारी है। खेती, बागबानी और फिर विकास की अंधी दौड़ में पहाड़ों को नंगा कर दिया गया। सड़कों, सुरंगों और रेलमार्गों के निर्माण ने पहाड़ों को खोखला कर दिया है। चारधाम यात्रा के लिए सड़कों का चौड़ीकरण इसका नवीनतम उदाहरण है, जिससे भूस्खलन की घटनाएं असामान्य रूप से बढ़ी हैं।

बदलता मौसम और आपदाओं की श्रृंखला

जलवायु परिवर्तन के कारण वर्षा का पैटर्न असामान्य हो गया है। अचानक भारी वर्षा और बादल फटने की घटनाएं लगातार सामने आ रही हैं। पिघलते ग्लेशियर झीलों का रूप ले रहे हैं, जो फटकर बाढ़ और तबाही का कारण बनते हैं। पहाड़ों पर जमा ढीली मिट्टी और चट्टानें वर्षा के साथ तेज़ी से बहकर गांवों को तबाह कर रही हैं। जोशीमठ जैसी घटनाएं इसी विनाशकारी प्रक्रिया का नतीजा हैं। हिमाचल और जम्मू-कश्मीर में भी यही भयावह परिदृश्य बन चुका है।

विकास मॉडल पर प्रश्न

सहभागियों के प्रश्नों के उत्तर देते हुए डॉ. चोपड़ा ने कहा कि जो डैम बन चुके हैं उन्हें हटाना संभव नहीं है, लेकिन नए डैमों के निर्माण पर रोक लगनी चाहिए। विकास योजनाओं को बिना गहन अध्ययन और पर्यावरणीय आकलन के लागू करना आत्मघाती है। ठेकेदारी तंत्र प्रकृति से बड़े स्तर पर छेड़छाड़ कर रहा है, जिस पर तुरंत अंकुश आवश्यक है।

उन्होंने यह भी कहा कि पहाड़ों पर बिना सोचे-समझे बस्तियां बसाना, पर्यटन की अंधाधुंध वृद्धि और अव्यवस्थित इन्फ्रास्ट्रक्चर, सभी मिलकर आपदाओं को न्योता दे रहे हैं।

समाधान की दिशा

1 इसके लिए स्थानीय जनता की भागीदारी अनिवार्य है।

2. पर्यटन पर नियंत्रण और उसकी क्षमता का आकलन जरूरी है।

3. वनों का पुनरुत्पादन सामूहिक प्रयासों से होना चाहिए, जिससे जल-जंगल-जमीन और जीव-जंतु में सामंजस्य स्थापित हो।

4. वैज्ञानिक दृष्टिकोण से योजनाएं बनें, न कि ठेकेदारों की मुनाफाखोरी से।

डा़.रवि चोपड़ा का यह व्याख्यान हिमालय की असली तस्वीर प्रस्तुत करता है। बाढ़, भूस्खलन और बादल फटने जैसी घटनाएं केवल प्राकृतिक आपदा नहीं हैं, बल्कि यह मनुष्य के लालच और गलत विकास मॉडल की परिणति हैं। यदि हमने पर्यावरणीय चेतना और संवेदनशीलता को समय रहते अपनाया, तभी हिमालय और वहां बसने वाली मानव सभ्यता सुरक्षित रह पाएगी।

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