शिमला/15/10/2025/राज्य चीफ़ ब्यूरो विजय समयाल
हिमाचल प्रदेश उच्च न्यायालय का हालिया निर्णय न केवल धार्मिक संपत्तियों की मर्यादा का संरक्षण करता है, बल्कि यह राज्य और धर्म के संबंधों को संविधानिक सीमाओं में परिभाषित करने वाला ऐतिहासिक मील पत्थर भी है। न्यायालय ने स्पष्ट कहा है कि मंदिरों में चढ़ाया गया धन देवता की संपत्ति है, न कि राज्य के राजस्व का हिस्सा। यह फैसला श्रद्धालुओं की आस्था और धार्मिक स्वतंत्रता दोनों की रक्षा करने वाला है।
सरकारों द्वारा वर्षों से मंदिरों की आय को विभिन्न सरकारी योजनाओं में खर्च करने की प्रवृत्ति पर यह निर्णय एक कड़ा संदेश देता है। प्रदेश में यह देखा गया कि मंदिरों की आय का उपयोग कभी पुलों, भवनों, गाड़ियों की खरीद में तो कभी जनकल्याण योजनाओं के घाटे को पूरा करने में किया गया। यह धार्मिक दान की मूल भावना के विपरीत था। उच्च न्यायालय ने इस प्रवृत्ति पर अंकुश लगाते हुए कहा कि राज्य का कर्तव्य केवल धर्म से जुड़ी सांसारिक गतिविधियों को नियंत्रित करना है, न कि उसकी आय को हथियाना।
कोर्ट ने अपने 38 पृष्ठों के विस्तृत आदेश में स्पष्ट किया कि मंदिरों की आय “पवित्र निधि” है और इसका उपयोग केवल देवताओं की सेवा, मंदिरों के रखरखाव तथा सनातन धर्म के प्रचार-प्रसार में ही किया जा सकता है। इस आदेश ने भक्तों की भावना को न्यायिक मान्यता दी है। अदालत ने यह भी कहा कि यदि सरकार इस धन का उपयोग अपने प्रशासनिक कार्यों में करती है, तो यह श्रद्धालुओं के विश्वास के साथ धोखा होगा।
न्यायालय ने पारदर्शिता की दिशा में एक और सराहनीय कदम उठाते हुए मंदिर प्रशासन को आदेश दिया है कि वे हर महीने की आय और व्यय का ब्यौरा सार्वजनिक करें। इसे मंदिर परिसर के नोटिस बोर्ड और वेबसाइट पर प्रदर्शित किया जाए ताकि जनता को यह पता चल सके कि उनका दान कहां और किस उद्देश्य से खर्च किया जा रहा है। यह व्यवस्था धार्मिक ट्रस्टों की जवाबदेही सुनिश्चित करेगी।
गौरतलब है कि प्रदेश में लगभग 36 सरकारी नियंत्रण वाले मंदिर हैं जिनकी कुल संपत्ति और नकद निधि लगभग 404 करोड़ रुपये बताई जाती है। इन मंदिरों में प्रतिवर्ष लाखों की चढ़त होती है। हाल ही में सरकार द्वारा मंदिरों से ‘सुख शिक्षा योजना’ और ‘मुख्यमंत्री सुखाश्रय योजना’ के लिए अंशदान मांगने के फैसले ने राजनीतिक विवाद को जन्म दिया था। यह निर्णय कहीं न कहीं उसी पृष्ठभूमि में न्यायिक समीक्षा की मांग को बल देता है।
न्यायालय का यह निर्णय इस मायने में भी ऐतिहासिक है कि यह न केवल धर्म की रक्षा करता है, बल्कि राज्य के नियंत्रणवाद पर भी सीमा रेखा खींचता है। संविधान के अनुच्छेद 25(2) का हवाला देते हुए कोर्ट ने यह स्पष्ट किया कि धार्मिक स्वतंत्रता सरकारी सुविधा पर निर्भर नहीं होती। राज्य का धर्म के प्रति दायित्व केवल सहयोग का है, नियंत्रण का नहीं।
इस निर्णय से यह उम्मीद की जा सकती है कि भविष्य में मंदिर न केवल पूजा-अर्चना के केंद्र होंगे बल्कि फिर से समाज सेवा, शिक्षा, कला और संस्कृति के पुनर्जागरण के केंद्र के रूप में उभरेंगे। यह फैसला श्रद्धा, न्याय और पारदर्शिता — तीनों का संतुलन स्थापित करता है। हिमाचल हाईकोर्ट ने आस्था को न्याय की भाषा दी है, और यह निश्चय ही भारतीय न्याय परंपरा में एक स्वर्णाक्षरी अध्याय के रूप में दर्ज होगा।

