सच्चाई यह है कि भारी बारिश और भूस्खलन के समय पेड़ अपनी जड़ों समेत उखड़ जाते हैं और तेज बहाव में बहकर नीचे घाटियों, डैमों और नदियों तक पहुंच जाते हैं
बरसात के मौसम में हिमाचल प्रदेश के कई क्षेत्रों में बाढ़ और भूस्खलन ने लोगों के घरों, खेतों, बाग-बगीचों, सड़कों और अन्य बुनियादी ढांचे को गंभीर नुकसान पहुंचाया है। केवल मानव-निर्मित संरचनाएं ही नहीं, बल्कि जंगलों में पेड़-पौधों, वनस्पति और मिट्टी की क्षति भी बड़े पैमाने पर हुई है। पानी का स्वाभाविक संग्रहण कम होना भी आने वाले समय में जल संकट का संकेत है।
हाल के वर्षों में पंडोह और पौंग डैम से लेकर रावी नदी तक बार-बार बहकर आती लकड़ी को लेकर सवाल उठते रहे हैं। स्थानीय लोग और सामाजिक कार्यकर्ता यह मानकर चलने लगे कि यह लकड़ी अवैध कटाई का परिणाम है। लेकिन पर्यावरणीय और वन प्रबंधन के नजरिये से देखा जाए तो यह धारणाएं पूरी तरह सही नहीं हैं।
सच्चाई यह है कि भारी बारिश और भूस्खलन के समय पेड़ अपनी जड़ों समेत उखड़ जाते हैं और तेज बहाव में बहकर नीचे घाटियों, डैमों और नदियों तक पहुंच जाते हैं। चट्टानों और मिट्टी से टकराते हुए यह लकड़ी बिना तराशी, बिना कटाई-चिरान के बहाव के साथ आती है, जिसे तकनीकी भाषा में “ड्रिफ्ट वुड” कहा जाता है। इस स्थिति में यह लकड़ी अवैध कटाई नहीं, बल्कि प्राकृतिक आपदा की उपज होती है।
हालांकि इसमें यह संभावना नकारा नहीं जा सकती कि कभी-कभी किसी ठेकेदार या स्थानीय स्तर पर अवैध रूप से काटी गई लकड़ी भी बाढ़ में बहकर आ जाए, लेकिन उसका अनुपात बेहद कम होता है। अधिकांश लकड़ी जंगलों की स्वाभाविक क्षति का परिणाम होती है। ऐसे में इस पूरे संसाधन को अवैध मानना न केवल पर्यावरणीय दृष्टि से अनुचित है बल्कि समाज में वन विभाग के प्रति अविश्वास भी फैलाता है।
वन कानूनों में भी यह स्पष्ट प्रावधान है कि नदी-नालों और डैमों में बहकर आई लकड़ी सरकार की संपत्ति मानी जाती है। स्थानीय लोग केवल अपने उपयोग के लिए सीमित मात्रा में इसे उठा सकते हैं, लेकिन इसे बाजार में बेचना निषिद्ध है। यदि राज्य सरकार इस लकड़ी को व्यवस्थित रूप से इकट्ठा करके नीलाम करे तो यह प्रदेश की आय का एक वैकल्पिक स्रोत बन सकता है। अनुमान है कि इस बार बहकर आई लकड़ी की कीमत सौ करोड़ रुपये तक हो सकती है।
यहां “वरदान” का पहलू यही है कि जहां एक ओर बाढ़ ने व्यापक तबाही मचाई, वहीं उसने जंगलों की मृत और बहकर आई लकड़ी को उपयोग में लाने का अवसर भी दिया। यदि इस संसाधन का वैज्ञानिक और पारदर्शी ढंग से प्रबंधन किया जाए तो यह राज्य के खजाने को मजबूत कर सकता है और स्थानीय लोगों को भी रोजगार दे सकता है।
इसलिए, जरूरत इस बात की है कि सरकार और वन विभाग आपदा से उपजी इस प्राकृतिक संपदा को बर्बाद न होने दें। साथ ही, जनता को भी सचेत किया जाए कि हर बहकर आई लकड़ी अवैध कटाई की नहीं होती। आपदा प्रबंधन को केवल क्षति-नियंत्रण तक सीमित न रखकर संसाधन प्रबंधन से जोड़ना ही पर्यावरण और समाज दोनों के लिए वरदान साबित होगा।

