जीवन में कठिनाइयाँ आती हैं, पर हर जीवन अमूल्य है और किसी भी परिस्थिति में मौत आखिरी समाधान नहीं है।
मोबाइल स्क्रीन के बीच संवाद की जगह ‘साइलेंस’ ने ले ली है। छोटे झगड़े, असफल रिश्ते, आर्थिक तनाव — ये सब जब भीतर दबे रहते हैं तो धीरे-धीरे मानसिक जहर बन जाते
करवाचौथ जैसे पारंपरिक पर्व से ठीक एक दिन पहले जिला ऊना से आई खबर ने पूरे प्रदेश को स्तब्ध कर दिया। तीन अलग-अलग स्थानों पर जहरीला पदार्थ निगलने से चार लोगों की असमय मौत हो गई — जिनमें एक दंपत्ति, एक वृद्ध महिला और एक अधेड़ व्यक्ति शामिल हैं। बट्ट कलां गांव की विशाला देवी और सुनील कुमार, मामूली कहासुनी के बाद जीवन से हार गए। विशाला देवी ने पहले स्वयं जहरीला पदार्थ खा लिया, और जब सुनील कुमार अपनी पत्नी को खोने का दुख नहीं झेल सके, तो उन्होंने भी वही रास्ता चुन लिया।इस दंपत्ति की शादी वर्ष 2014 में हुई थी और उनके कोई संतान नहीं थी। यह घटना इस बात की ओर संकेत करती है कि कभी-कभी भावनात्मक असंतुलन और सामाजिक दबाव मनुष्य को उस मोड़ तक पहुँचा देता है जहाँ वह अपनी जिंदगी का अंत करने का निर्णय ले लेता है.
वृद्धा और अधेड़ की मौत ने खोली सामाजिक संवेदना की कमी की पोल:
गगरेट के मवां सिंधियां गांव में 70 वर्षीय कर्मो देवी ने भी जहरीला पदार्थ खाकर अपनी जान दे दी। परिजन जब तक उन्हें अस्पताल ले जाते, रास्ते में ही उन्होंने दम तोड़ दिया। एक वृद्धा, जिसने शायद पूरी जिंदगी परिवार और समाज के लिए समर्पित की होगी, आज उसी समाज में अकेलेपन और असहायता की शिकार बन गई।इसी तरह ऊना मुख्यालय के पास रामपुर गांव में सुरेंद्र कुमार (40) ने भी बुधवार को जहरीला पदार्थ खा लिया था। इलाज के लिए पहले क्षेत्रीय अस्पताल और बाद में पीजीआई चंडीगढ़ ले जाया गया, परंतु जीवन की डोर वहाँ भी टूट गई।इन घटनाओं ने यह सोचने पर मजबूर कर दिया है कि आखिर लोग इतने असहाय क्यों महसूस कर रहे हैं कि मौत ही उन्हें समाधान लगती है? यह केवल व्यक्तिगत त्रासदी नहीं, बल्कि सामाजिक विफलता का आईना भी है.
मानसिक स्वास्थ्य: अदृश्य संकट का बढ़ता दायरा :
देशभर में आत्महत्या के मामले चिंताजनक रूप से बढ़ रहे हैं। नेशनल क्राइम रिकॉर्ड्स ब्यूरो (NCRB) की ताजा रिपोर्ट बताती है कि भारत में प्रतिदिन लगभग 400 से अधिक लोग आत्महत्या कर रहे हैं, जिनमें से बड़ी संख्या 18 से 45 वर्ष के आयु वर्ग की है।मानसिक स्वास्थ्य आज की सबसे बड़ी सामाजिक चुनौती बन गया है। तनाव, अवसाद, आर्थिक दबाव, बेरोजगारी, रिश्तों में असंतुलन और डिजिटल युग की कृत्रिम प्रतिस्पर्धा ने व्यक्ति को भीतर से तोड़ दिया है। ग्रामीण क्षेत्रों में तो मानसिक स्वास्थ्य को लेकर न जागरूकता है, न संसाधन। “डिप्रेशन” शब्द को अब भी समाज कमजोरी या पागलपन का पर्याय मानता है, जिसके कारण लोग अपनी भावनाएँ साझा नहीं कर पाते।यदि विशाला देवी या सुनील कुमार जैसे लोग समय रहते किसी पर भरोसा कर अपनी पीड़ा बाँट पाते, तो शायद आज चार घरों में शोक का माहौल न होता।-
परिवार और समाज की भूमिका: संवाद की कमी ने बढ़ाया अंधेरा
:हर आत्महत्या की घटना हमें यह सिखाती है कि परिवार और समाज में संवाद की डोर कितनी कमजोर हो चुकी है।आज घरों में रिश्ते तो हैं, पर बातचीत नहीं। मोबाइल स्क्रीन के बीच संवाद की जगह ‘साइलेंस’ ने ले ली है। छोटे झगड़े, असफल रिश्ते, आर्थिक तनाव — ये सब जब भीतर दबे रहते हैं तो धीरे-धीरे मानसिक जहर बन जाते हैं।विशाला देवी और सुनील कुमार का उदाहरण देखिए- मामूली कहासुनी एक भयंकर निर्णय में बदल गई। यह इस बात का प्रतीक है कि भावनात्मक संतुलन और पारिवारिक सहारा कितना आवश्यक है।जरूरत है कि समाज में ऐसे हालात को समझा जाए, लोगों को ‘सुनने’ की आदत डाली जाए। हर व्यक्ति को यह महसूस होना चाहिए कि वह अकेला नहीं है। स्कूलों, पंचायतों, सामाजिक संस्थाओं और धार्मिक संगठनों को मानसिक स्वास्थ्य पर जागरूकता फैलाने की दिशा में सक्रिय भूमिका निभानी चाहिए।
आत्महत्या नहीं, समाधान खोजने की जरूरत:
संवेदनशील समाज की पुकारइन घटनाओं ने इंसानियत को झकझोर दिया है। हर रोज अख़बारों के पन्ने आत्महत्या की खबरों से भरे रहते हैं ।कोई बेरोजगारी से परेशान है, कोई पारिवारिक झगड़े से, कोई प्रेम में असफलता से। सवाल यह नहीं कि लोग क्यों मर रहे हैं, बल्कि यह है कि समाज उन्हें जीने का कारण क्यों नहीं दे पा रहा।जरूरत है संवेदनशील समाज की — जहाँ दर्द को सुना जाए, मदद के लिए हाथ बढ़ाए जाएँ, और मानसिक स्वास्थ्य को प्राथमिकता दी जाए।सरकार को भी प्रत्येक जिले में “मानसिक स्वास्थ्य सहायता केंद्र”, हेल्पलाइन और सामुदायिक काउंसलिंग सेल स्थापित करने चाहिए। मीडिया को इस विषय पर सनसनी नहीं, संवेदना के साथ रिपोर्ट करनी चाहिए।मानव जीवन अमूल्य है –कोई भी समस्या इतनी बड़ी नहीं होती कि उसका हल मौत हो।हर व्यक्ति को यह समझना चाहिए कि अंधेरे के बाद हमेशा सुबह होती है। यदि जीवन कठिन लगता है, तो सहायता माँगना कमजोरी नहीं, बल्कि साहस का प्रतीक है।
सारगर्भित है कि इंसानियत की पुकार है कि जिला ऊना की यह त्रासदी केवल चार लोगों की नहीं, पूरे समाज की है। यह हमें चेतावनी देती है कि मानसिक और भावनात्मक स्वास्थ्य की अनदेखी अब असहनीय परिणाम दे रही है।हमें ऐसा माहौल बनाना होगा जहाँ हर व्यक्ति अपने दुख, डर और निराशा को सहजता से साझा कर सके।जीवन में कठिनाइयाँ आती हैं, पर हर जीवन अमूल्य है और किसी भी परिस्थिति में मौत आखिरी समाधान नहीं है।

